टोक्यो: जापान के सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक ऐतिहासिक फैसले में सरकार को उन पीड़ितों को उचित मुआवजा देने का आदेश दिया, जिसके तहत अब ‘यूजेनिक्स प्रोटेक्शन लॉ’ के तहत जबरदस्त नसबंदी की गई थी। यह कानून शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्तियों के संतान न पैदा करने के लिए बनाया गया था। ऐसा अनुमान है कि जन्म लेने वाली संतानों में किसी प्रकार की शारीरिक कमी को रोकने के लिए 1950 से 1970 के बीच इस कानून के तहत बिना किसी सहमति के करीब 25 हजार लोगों की नसबंदी की गई थी।
कई वद अब पब पर किस्मत
वादी के वकीलों ने इसे जापान में ‘युद्ध के बाद के युग में सबसे बड़ा मानवाधिकार उल्लंघन’ बताया। कोर्ट ने कहा कि 1948 का यह कानून असंवैधानिक था। बुधवार को आया फैसला 39 में से 11 विद्वानों के लिए था, जो अपने मामले की देश के सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए जापान की 5 पूर्ववर्ती अदालतों में पंजीकृत लड़े। अन्य लेखकों की यादें अभी भी ताजा हैं। इनमें से कई वादी अब मोबाइल पर प्रतिभावान हैं। उन्होंने फैसले के बाद अदालत के बाहर शुक्रिया अदा किया। तोक्यो में 81 वर्षीय वादी सबुरो किता ने कहा, ‘मैं अपनी खुशी बयान नहीं कर सकता और मैं यह अकेले कभी नहीं पा सकता।’
14 साल की उम्र में हो गई थी नसबंदी
किता ने बताया कि उनकी उम्र 1957 में 14 साल थी नसबन्दी कर दी गई थी जब वह एक अनाथालय में रहती थी। उन्होंने कई साल पहले अपनी पत्नी की मृत्यु से कुछ समय पहले ही अपने इस राज से पर्दा उठाया था। उन्होंने कहा कि उन्हें अपनी वजह से कभी बच्चा न होने का अफसोस है। प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा ने पीड़ितों से माफी मांगी और कहा कि उन्हें व्यक्तिगत रूप से माफी मांगने के लिए हिंदुओं से मिलने की उम्मीद है। किशिदा ने कहा कि सरकार नई क्षतिपूर्ति योजना पर विचार करेगी।